श्री रतनमणी डोभाल जी की फ़ेसबुक से
हरिद्वार। कई साल बाद मैं नौ फरवरी को पहाड़ चढ़ा। ऋषिकेश से ही लगा जैसे युवा हिमालय का पहाड़ कह रहा हो तुम भी आ गए मेरा तमाशा देखने। लेकिन मैं तो उसका हालचाल जानने जा रहा था इसलिए अधिक ध्यान नहीं दिया।

रात हो चली थी और वैसे भी मैं चमोली में ऋषि गंगा के जलप्रलय वाली जगह को देखने तथा हाल जानने जा रहा था। हिमालय दर्पण उत्तराखंड मेरे साथ था। 10 फरवरी को वहां पहुंचा। सुबह का ही वक्त था। ऋषि गंगा से लगभग 4-5 किमी पहले तपोवन है जहां ऋषि गंगा और धौली गंगा नदी पर एनटीपीसी की निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजना है। अधिकृत रूप से इस परियोजना के 94 मजदूर लापता हैं। जिनमें से 35 के सुरंग के अंदर होने की संभावना है। जिनको तलाशने की जद्दोजहद की जी रही है।

इस तबाही के बाद भी सरकार ने इस परियोजना के पुनर्निर्माण कराने का निर्णय लिया है। इसका मतलब साफ है कोई सबक लेने को सिस्टम तैयार नहीं है। इसका पुर्ननिर्माण बहुत मंहगा पड़ने वाला होगा। इससे बेहतर एक नयी परियोजना बनाना होगा।

ऋषि गंगा की जलविद्युत परियोजना का पूरी तरह नमों निशान मिट गया है और कंपनी के 56 मजदूर लापता हैं। कंपनी का एक भी अधिकारी, कर्मचारी मौके पर नहीं है, सब भाग गए हैं। इसका कुछ भी बचा नहीं है।मलबे में कुछ दबा हो तो अलग बात है।
क्षेत्र निवासी देवेंद्र खनेडा ने बताया कि मीडिया में ग्लेशियर टूटने से जलप्रलय बताया जा रहा है जो सही नहीं है। उसका कहना है कि इस बार इतनी बर्फबारी हुई नहीं है जिससे ग्लेशियर बनता। उसका अनुमान तथा कि ‌ऋषिगंगा से उपर जलस्रोत है और कमेडा मिट्टी का त्रिशूल पर्वत है। वहीं पर कुछ हुआ होगा जो इतना बवंडर आया है। देवेन्द्र की बात में दम है। पर्यावरणविद जगदीश सिंह जंगली का भी ऐसा ही मानना है। ऋषि गंगा तथा उसके आसपास तापमान में वृद्धि होना महसूस किया गया है। वहां जो ठंड होनी चाहिए वह नहीं थी और वहां से अधिक ठंड तो हरिद्वार वह देहरादून में है।

मुख्य बात यह है कि दोनों परियोजना स्थलों पर सुरक्षा मानकों की घोर अनदेखी की गई है। सुरक्षा मानकों का पालन किया होता तो तपोवन परियोजना में जो सबसे अधिक जीवन समाप्त हुए हैं उनको बचाया जा सकता था। गौर करने की बात है ऋषि गंगा चल पहले का स्थल है उससे तपोवन परियोजना की दूरी लगभग 4 से 5 किलोमीटर दूर है। ऋषि गंगा से चार-पांच किलोमीटर तपोवन तक फ्लड के पहुंचने में समय लगा होगा। कंपनी ने सुरक्षा मानकों का पालन करते हुए सुरक्षा उपकरण अलार्म, सीसीटीवी कैमरे आदि आसपास लगा श्रखे होते तो खतरे का अलार्म बज जाता और जान बचाई जा सकती थी। लेकिन मजदूरों की जान की कोई कीमत होती तब न।

10 फरवरी को रात 10 बजे हम कर्ण प्रयाग पहुंचे और रात कर्ण की भूमि पर रहा। सुबह 11बजे हरिद्वार के लिए चलते हुए विकास के नाम पर भागती दौड़ती चौड़ी सड़कें बनाने के लिए जिस प्रकार अंधाधुंध ढंग से युवा हिमालय के पहाड़ों को काटा जा रहा है।जिस प्रकार उसकी छाती को ड्रिल किया जा रहा है। मलबा गंगा नदी में डाला जा रहा है। लोगों को उजाड़ा जा रहा है वह बहुत ही खतरनाक स्थिति है।

मुझे लगा जैसे यह पहाड़ मुझसे कह रहा है कि वह असहनीय पीड़ा में है। पता नहीं किस दिन गिर पड़ूंगा तब देखना न पीड़ा देने वाले बचेंगे और न देखने वाले। जिस हिमालय के पहाड़ को पालने पोसने की जरूरत थी, उसकी छाती को ड्रिल किया जा रहा है बेदर्दी से काटा जा रहा है।

वीर माधों सिंह भंडारी का मलेथा भी खोदा जा रहा है। मलेथा का हराभरा सेरा खोदकर रेलवे स्टेशन बन रहा है। एक पूरी वीरगाथा और उसकी संस्कृति को मिटाया जा रहा है। न जाने क्यों रेलवे स्टेशन के लिए इस बेहतरीन भूमि का चयन किया गया। स्टेशन के लिए बंजर या असिंचित कम उपजाऊ भूमि का चयन किया जा सकता था जिसका वहां आसपास कमी भी नहीं है।

कर्ण प्रयाग से मुनि की रेती के पास तक पर्यावरणविदों की चेतावनी के बाद भी चौड़ीकरण काम चल रहा है। पहाड़ की कटिंग से भयंकर डस्ट उड़ रही है। शीशे बंद रखने के बाद भी गाड़ी के इतनी धूल जमा हो गई कि हालत खराब हो गई। पर्यावरण को भारी नुक़सान पहुंचाया जा रहा है। कहीं भी धूल न उड़े इसके लिए पानी का छिड़काव करने वाली गाड़ी हमें नहीं मिली।
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